जयपुर के जंतर मंतर का इतिहास(History of Jantar Mantar of Jaipur)

क्या आप जानते हैं? जयपुर के जंतर मंतर का इतिहास क्या है? जयपुर में बने जंतर मंतर को किसने, कब और क्यों बनवाया? इस जंतर मंतर में ऐसा क्या चीज है जो लोग दूर-दूर से इसे देखने आते हैं? क्या आप जानते हैं? इस जंतर मंतर का संबंध अन्य जगह बने जंतर मंतर से है! तो चलिए आइए जानते हैं जयपुर के जंतर मंतर का इतिहास और इसके बारे में:-


जयपुर का जंतर मंतर कहां पर है?

यह भारत के राज्य राजस्थान की राजधानी जयपुर के पिंक सिटी के J.D.A. मार्केट में स्थित है।


जयपुर के जतंर मतंर का इतिहास

जयपुर का  जंतर मंतर के बारें में 

जयपुर का जंतर मंतर को  जयपुर की वेद्यशेलाए  भी कहा जाता है, क्योकि जतंर मतंर का शाब्दिक अर्थ है  जतंर से यंत्र या उपकरण/साधन और मतंंर से मंत्र व गणना"। इस प्रकार से जतंर-मतंर का अर्थ है ऐसे यंंत्र की वेधशाला जिससे यत्रं के द्वारा गणितिय  गणनाओ के माध्यम से ग्रहो या ग्रहण की भविष्यवाणी, समय मापना,  किसी तारो की गति या सौरमण्डल की गती (ज्योतिषीय और खगोलिय घटनाओ का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी), आदि जानने वाला। यह एक ऐसा जंंतर मंंतर है जिसे देखने के लिये लोग काफी दूर दूर से आते है और खासकर ज्यादतर स्कूल, कालेज व अन्य शिक्षा संस्था के बच्चे व लोग देखने व इसके बारे मे या इसमे बने यंत्र का अनुसधांन  करने के लिये आते है क्योकि यह जतंर मंतर एक "खगोलिय वेधशाला" है। इसके निर्माण करने वाले भी एक  ज्योतिष सम्बधी विभिन्न ग्रंंथो का अध्ययन किया करते थे। इस वेधशाला में ऐसे  खंगोलिय यंंत्र का निर्माण करवाया गया, जिससे गणितिय सरंंचनाओ के माध्यम से ज्योतिषीय और खगोलिय घटनाओ का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी हो सके। इस जतंंर-मतंर के सहित निर्माण करने वाले शासक ने 5 जतंर मतंर का निर्माण करवाया करवाय था जिसमे  6 वर्षो तक अध्धयन करने के बाद दिल्ली के जतंर मतंर का निर्माण पहले करवाया गया था और उसके बाद  जाकर जयपुर के जतंर मतंंर का निर्माण करवाया गया था। लेकिन जयपुर का जतंर मतंर को सबसे बड़ा बताया जाता है क्योकि यह काफी बडे क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत खोज में( डिस्कवरी ऑफ इंडिया) यहां के राजा की प्रशंसा और एक विशेष योगदान के लिए सम्मान पूर्वक बातें लिखी है।

    

इस जतंर मतंर का निर्माण-

जयपुर के जतंर‌- मतंर का निर्माण जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई जयसिंह जी (द्वितीय) द्वारा सन् 1728 में  निर्माण करवाया गया था । इस जतंर मतंर का निर्माण का उद्देश्य था  कि  महाराजा  के मन में सन् 1718  समय की गणना और ज्योतिषीय व खगोलिय घटनाओ क विश्लेषण के साथ सटीक भविष्यवाणी करने के लिये एक यंंत्र की वेधशाला निर्माण करवाने का विचार आया। इसके लिये  महाराजा सवाई जयसिंह जी (द्वितीय) ने अपने विद्वानो  को अरब, यूरोप, बिर्टेन, पुर्तगाल आदि दूर देशो में  भेजकर वहां के ज्योतिष सम्बन्धी ग्र्न्धो  सारभूत अध्ययन करवाया। 6 वर्षो के अध्ययन के पश्चात सन् 1724 मे दिल्ली मे प्रथम वेधशाला का निर्माण करवाया। 

इसके बाद सन् 1728 जयपुर के जतंर मतंर के निर्माण के  साथ कई वर्षो तक ग्रह नक्षत्रादि के वेधादि में पूर्ण सफलता के बाद सन 1738 तक दूसरा  जयपुर के जतंर मतंर पूर्ण रुप से निर्माण करवाया और इसके बाद 3 अन्य स्थानो  (उज्जेन, बनारस व मथुरा)   पर भी जतंर मतंर का निर्माण करवाया।   

इन पांचो  वेधशाला के निर्माण कराने में  महाराजा सवाई जयसिंह जी (द्वितीय) ने कई लोगो का पूर्ण रुप से सहयोग लिया।
1. विभिन्न यंत्रों के अध्ययन के दौरान अन्य भाषाओं में लिखित ग्रंथों को संस्कृत में अनुवाद व संशोधित सहित विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता मराठा ब्राह्मण पंडित जगन्नाथ सम्राट द्वारा करवाया
2. श्रीमाली ब्राह्मण पंडित केवल राम जी से गणित ज्योतिष संबंधित सारणीयो का निर्माण करवाया था।
3. कई विद्वानों को अध्ययन के लिए विदेशों में भेजा गया।
4. इसके जीर्णोद्धार के लिए महाराजा माधव सिंह जी के राज्य काल पंडित चंद्रधर गुलरी ग्रेट साहब व पंडित गोकुल चंद्र जी भवन के सहयोग से संगमरमर के पत्थर से कराया गया।


इस जंतर मंतर का रंग रूप व आकार

जयपुर का जंतर मंतर काफी बड़े क्षेत्रफल  करीब 18700 मीटर  में फैला हुआ है और यह एक आयत के आकार के रूप में हैं इस जंतर मंतर में दो मुख्य द्वार है जो कि पहला मुख्य द्वार में प्रवेश द्वार है और दूसरा मुख्य द्वार निकास द्वार है।
इस जयपुर के जंतर मंतर में पीले व लाल बलुआ पत्थर के द्वारा निर्माण किया गया है और इस जंतर मंतर के अंदर बने यंत्र का निर्माण भी पीले व लाल और संगमरमर के पत्थर द्वारा किया गया है। यहां के आसपास बने सभी इमारतों को पीले पत्थरों द्वारा भी कराया गया है जिसके कारण यहां को पिंक सिटी कहा जाता है यहां पर पीले पत्थरों का कई मात्रा में प्रयोग किया गया है।

इस जंतर मंतर के अंदर बने यंत्र के बारे में

महाराजा द्वारा बनाए गए पांचों वेधशाला में यंत्र बने हुए है जिसके द्वारा महाराजा जी खगोलिक भविष्यवाणी जान पाते थे जैसे कि तारे एमगति की स्थिति जानने समय मापने मौसम की स्थिति जानने अकाश ऊंचाई का पता लगाने एम ग्रंथ की भविष्यवाणी करने समेत सौरमंडल के तमाम गतिविधियां इन यंत्रों के द्वारा हासिल की जाती थी। जयपुर के जंतर मंतर में भी ऐसे ही यंत्र बने हुए हैं। यहां पर कुल 32 यंत्र है लेकिन मुख्य रूप से 18  प्रकार के यंत्र  इस जंतर मंतर में है:-

1. उन्नतांश यंत्र

उन्नतांश यत्र


जब आप इस जंतर मंतर में प्रवेश करते हो तो सबसे पहले आपको बाय हिस्से में गोलाकार चबूतरे के दोनों ओर 2 स्तंभों के बीच लटके धातु के विशाल गोले को उन्नतांश  यंत्र कहते है।
इस यंत्र में पीतल का एक विशाल अन्शाकिंत वॄत (graduated circle) लगा है जो कि इस तरह स्थित है कि वह एक लंबवत दूरी के चारों तरफ मुक्त रूप से घूम सकता है इस व्रत में लंबवत और क्षैतिज दिशाओं में एक दूसरो को काटने वाले दो शह-तीर भी है। 
भारत के मध्य में दृष्टि नली लगाकर इसे किसी खगोलीय पिंड की सीध में लाने के लिए व्रत को घुमाकर दृष्टि नली से पिंड को देखा जाता है। पिंड को देखने के बाद दृष्टि नली की नोक के नीचे आ रहे अंशो को पढ़कर उसकी ऊंचाई ज्ञात की जा सकती है। उन्नतांश  की यह रचना आधुनिक युग के टेलीस्कोप को स्थापित करने की ओल्ट एज (Alt-az)  विधि के समरूप है।
वृत की परिधि पर आंसुओं को इस तरह चिन्हित किया गया है कि सबसे छोटा भाग एक अंश के 10 विभाग के बराबर बन गया है इस घेरे पर एक अंश और 6 अंश के बड़े विभाजन भी अंकित है

2. यंत्र राज

उन्नतांश  यंत्र के ठीक बराबर में ही यंत्र राज है इसमें दो बड़े-बड़े घंटे आकार के यंत्र है। यह पीतल की धातु से बना हुआ है। इस उपकरण का इस्तेमाल समय, सूर्य, व ग्रहो की स्थिति, लगन, तथा उन्नतांश की जानकारी करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा इस उपकरण को खगोलीय स्थितियों व उन में आने वाले बदलावों की गणना करने के लिए भी इस्तेमाल करते थे और अब भी किया जाता है।

यह वेध यंत्र का ही एक परिवर्तित रूप है जो कि समय तथा खगोलीय पिंडों की स्थिति मापने वाला एक मुख्य मध्यकालीन उपकरण था। महाराजा सवाई जयसिंह कि यंत्र राज्य में अत्याधिक रुचि थी और उन्होंने विभिन्न भाषाओं के छोटे-बड़े यंत्र राज्यों का संकलन एवं अध्ययन कर जयपुर वेधशाला के लिए विस्तृत यंत्र का निर्माण करवाया।
धातु से निर्मित इस यंत्र के बड़े वर्ग में 360 अंश तथा 6 अंश की एक घंटी  मानते हुए साथ घंटी  अंकित है। इस यंत्र में 90 उन्नतांश व्रत भी दर्शाए गए हैं।
इसके अतिरिक्त यंत्र पर अश्विन  आदि  27 नक्षत्रों तथा सप्तऋषि, प्रजापति, लुब्धक, प्रभुत्ति आदि प्रसिद्ध नाराओ के नाम अंकित है। साथ ही नाड़ी वॄत, कर्क वॄत, समय वॄत, दिगंश वॄत, को भी यथा स्थान अंकित किया गया है। दृष्टि नली के लिए अलग से उपकरण लगाया जाता है।

3. क्रांति वॄत यंत्र


यह यंत्र राज यंत्र के ठीक सामने क्रांति वृत यंत्र पड़ता है जो कि 2 वृतो से बना हुआ है।

यह क्रांति वृत में सम्मान व्यास वाले पीतल के 2 वृत है, जिन्हें आपस में 23 1/2 अंश के कोण पर जोड़ा गया है। दोनों वृत पत्थर से निर्मित नाडी वृत  पर स्थित है जो कि भूमध्य रेखा पर स्थित रहता है। नाड़ी वृत पर 5-5 अंशो के अंतर से 60 अंशों के चिन्ह अंकित हैं। पीतल के भारी व्रत पर 12 राशि के अंश लिखे हुए हैं।यंत्र का नाडी वृत सदैव स्थिर रहता है जबकि पीतल के दोनों वृतो को वेध के समय क्रांति वृत के समानांतर घुमाया जा सकता है।

वेध करने के समय बाहरी वृत्त के केंद्र में दृष्टि नली लगाई जा कर पिंड को देखा जाता है दृष्टि नली के स्थिर होने की स्थिति पर बाहरी  व्रत पर अंकित माप तथा दृष्टि नली के साथ जुड़े चतुर्थाश पर अंकित स्केल को पढ़ा जाकर पिंड के खगोलीय अक्षांश एवं देशांतर को ज्ञात किया जाता है।

इस तरह से इस यंत्र के द्वारा आकाश में किसी पिंड के खगोलीय अक्षांश और खगोलीय देशांतर रेखाएं मापने के काम आता है इससे दिन के समय सूर्य की सायन राशि एवं क्रांति भी ज्ञात की जाती है।


4. नाड़ीवयल यंत्र



यह यंत्र प्रवेश द्वार के दाएं भाग में स्थित है। यह दो गोलाकार फलकों में बटा हुआ है। इस यंत्र के गोलाकार के केंद्र बिंदु से चारों ओर दर्शाई विभिन्न रेखा से सूर्य की स्थिति और स्थानीय समय का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है
इस यंत्र में उत्तर गॉलवे दक्षिण गोल्ड गोलाकार प्लेटे हैं जो की घड़ी के अकार व  रूप में है। जिस दीवार पर यह प्लेटें स्थित है वह खास कौन पद्धति और झुकी हुई है जिससे यंत्र की स्थिति एक भूमध्य रेखा के समानांतर आ जाती हैं प्लेटो के केंद्र में स्थित शंकु की परछाई डायल प्लेट पर बनी माप के साथ चलती जाती है जिससे स्थानीय समय का पता चलता है
शंकु को केंद्र मानते हुए समूचे डायल प्लेट पर तीन  वृत बनाए गए हैं जिनमें से 2 वृतो में समय ज्ञान हेतु घंटों तथा मिनटों के चिन्ह बने हुए हैं और तीसरे वृत में नत  घंटियों के चिन्ह अंकित है। यांत्रित घड़ी का समय ज्ञात करने के लिए वृत्ताकार मापक द्वारा इंगित समय में परिशुद्धि घटक जोड़ना होता है जो कि वेधशाला में दर्शाया गया है।
इस यंत्र को दुनिया की सबसे बड़ी घड़ी के रूप में जाना जाता है।


5. ध्रुव दर्शक पट्टिका

इस पट्टिका  का निर्माण ध्रुव तारा देखने के लिए किया गया है इसलिए इसको दूर दर्शक पट्टिका कहते है। यह वेधशाला में सबसे सरल यंत्र है। यह एक दीवार के रूप में हैं जो कि दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर ऊपर की तरफ अधिक ऊंचाई की ओर बनाई गई है जो कि एक छोटी समलंब आकार संरचना के रूप में होती है। और इसमें  इस यंत्र के दक्षिण हिस्से में शुरुआती हिस्से पर नेत्र लगाकर देखने पर उतरी सिरे पर से धुर्व तारे की स्थिति स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। यह यंत्र के ऊपरी सतह पर स्पष्ट अंधेरी रात में ही ध्रुव तारे की ओर इंगित कर सकता है।

त्रिकोणीय दीवार में कोण  वेधशाला के अक्षांश के बराबर माना जाता है(27 डिग्री उत्तर)। यंत्र को 3 पॉइंट जीरो 7 मीटर लंबे और 54 मीटर चौड़े  चिकनाई वाले पत्थर के आधार पर खड़ा किया गया है। इसका निचला सिरा लगभग 76 सेंटीमीटर जमीन के ऊपर और ऊपरी छोर 2.3 सेंटीमीटर है।

यह उपकरण पहले के युग में कंपास होता था


6. लघु सम्राट यंत्र



इस यंत्र को धूप यंत्र भी कहते हैं इस यंत्र से स्थानीय समय की सही गणना होती है। यह यंत्र 20 सेकंड तक की सूक्ष्मता  से समय बता सकती है।इस यंत्र  में त्रिकोणीय दिवार की परछाई  इसके पूर्वी तथा पश्चिमी दिशा में स्थित चतुर्थाशंं चापो  पर पडता है जिससे स्थानीय समय का पता चलता है। उत्तर दक्षिण  दिशा में स्थित त्रिकोणीय दिवार का भीत्रि कोण इस स्थान के अक्षांश( 26 अंश उत्तर) के बराबर है।
पश्चिम एवं पूर्व वाले चतुर्थांशो कोकण प्रांत: एवं अपराहः के समय की जानकारी हेतु 6-6 घटों में बांटा गया है। प्रत्येक घंटे को 15:15 मिनट के चार खंडों में विभाजित किया गया है जिसमें प्रत्येक खंड पहले 5 मिनट इससे आगे 1 मिनट के खंडों में विभक्त है। प्रत्येक 1 मिनट का खंड भी 20-20 सेकंड के तीन खंडों में विभाजित है
धूप घड़ी के समय को यांत्रिक घड़ी के समय में बदलने के लिए निर्धारित परिषद दी घटक लघु सम्राट यंत्र के समीप ही अंकित हैं।
लघु सम्राट यंत्र से सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन वार्षिक कृतियों को भी मापा जा सकता है त्रिकोणीय दीवार पर दोनों और 0 अंश से 23 अंश उत्तर व दक्षिण अंकित है जिनका उपयोग रवि क्रांति प्रदीप पाल यानी भूमध्य रेखा की तुलना में कौन स्थिति को जानने के लिए किया जाता है



7. वृहत सम्राट यंत्र


वृहत सम्राट यंत्र


यह यंत्र धुव्र दर्शक  पट्टीका और लघु सम्राट यंत्र का ही बड़ा स्वरूप यंत्र  है। यह यंत्र विशाल रूप में दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर दीवार के रूप में बनाया गया है।

वृहत सम्राट यंत्र यह भी एक धूप घड़ी ही है जो कि 2 सेकंड तक की सूक्ष्मता से समय बताती है। इस यंत्र में विशालकाय त्रिकोणीय दीवार की परछाई इसकी पूर्वी तथा पश्चिमी दिशा में स्थित बड़े चतुर्थांश चापो पर पड़ती है जिससे स्थानीय समय का पता चलता है उत्तर दक्षिण दिशा में स्थित त्रिकोणी दीवार का भीतरी कोण इस स्थानों के अक्षांश(27 अंश उत्तर) के बराबर है।

पश्चिम एवं पूर्व वाले चतुर्थांशो कोकण प्रांत: एवं अपराहः के समय की जानकारी हेतु 6-6 घटों में बांटा गया है। प्रत्येक घंटे को 15:15 मिनट के चार खंडों में विभाजित किया गया है जिसमें प्रत्येक खंड पहले 5-5 मिनट इससे आगे 1 मिनट के खंडों में विभक्त है। प्रत्येक 1 मिनट का खंड भी 20-20 सेकंड के तीन खंडों में विभाजित है

धूप घड़ी के समय को यांत्रिक घड़ी के समय में बदलने के लिए निर्धारित परिशुध्दी घटक लघु सम्राट यंत्र के समीप ही अंकित हैं। त्रिकोणीय दिवार पर दोनो ओर ० अंंश  से 23,1/2 अंश उत्तर व दक्षिण अंकित है जिनक उपयोग रविक्रांति/दिक्पात यानी भूमध्य  रेखा की तुलना में कोणीय स्थिति  को जानने के लिये किया जाता है।

8. राशि वलय यंत्र 

12 राशी वलय यंंत्र


यह छोटे छोटे सम्राट जैसे 12 यंंत्र का समूह है जिसे 12 राशि वलय यंंत्र कहते है। प्रत्येक राशि और उनके ग्रह -नक्षत्रो की स्थिति को दर्शाने के लिये है। और इनकी खास बात है कि इनकी बनावट एक दिखती है लेकिन आकाश मे राशियो की स्थिति का पता लगाने का अलग‌‌ अलग  यंंत्रो  का  अलग अलग कार्य व अलग अलग बनावट है।

9. चक्र यंंत्र 

लोहे के दो विशाल गोल यंंत्र जो एक तरह से वृत्ताकार यंंत्र है जो कि किसि खगोलिय पिण्ड के दिक्पात और नतकाल  के भौगोलिक निर्देशांको को मापने के काम आता है। खगोलिय भूमध्य  रेखा से उत्तर या दक्षिण दिशा की कोणीय दूरी को दिक्पात कहा जाता है। किसी खगोलीय पिण्ड का होरावृत एक विशाल वृत  होत है जो कि उस पिण्ड एंंव खगोलीय ध्रुवो से गुजरता है। किसी प्रेक्षक की मध्याह्न तथा खगोलिय  पिंड के होरावृत के बीच जो कोण बनता उसे नतकाल कहा जाता है।

यंत्र में लगे धातु के व्रत पर 360 अंश बने हैं तथा प्रत्येक अंश 10 भागों में विभक्त है इस व्रत को यंत्र के दक्षिणी छोर पर धुर्वीय  धुरी के इर्द-गिर्द आधार वृत से जोड़ा गया है जिस पर 60 घंटी के चिन्ह अंकित है । वृर्ताकार यंत्र के मध्य में एक दृष्टि नली लगाई जाती है धुर्वीय धुरी के इर्द-गिर्द पूरे वृत  की गति तथा अभिलंब धुरी पर दृष्टि नली की गति के सहारे किसी खगोलीय पिंड को देखा जा सकता है।

जब किसी खगोलीय पिंड को देख लिया जाता है तो दोनों पैमाने पर दृष्टि नली की स्थिति के आधार पर दीक्पात और नतकाल ज्ञात किया जाता है।

10. जय प्रकाश यंंत्र  

जय प्रकाश यंंत्रम


यह यत्र दो यत्रं है जिसको जय प्रकाश यंत्र-क और जय प्रकाश यंत्र-ख के रुप में प्रद्शित किया गया है। इस यंंत्र का निर्माण खुद राज सवाई जयसिंह ने कराया है। यह यंत्र एक कटोरे के आकार में है। इस यंत्र मे किनारे को क्षितिज मानकर  आधे खगोल का खगोलिय परिदर्शन और प्रत्येक पदार्थ के ज्ञान के लिये किया जाता है। इन यंंत्रो  द्वारा सूर्य की किसी राशि में स्थिति का भी पता चलता है। यह दोनो यंंत्र एक दूसरे के पूरक भी है।  


11. राम यंंत्र


यह  यंंत्र स्तम्भो के खम्भो से बना शंंकु की तरह है जिसे राम यंत्र कहते है।  इस यंत्र का उपयोग किसी  खगोलीय पिंड की ऊंचाई/उन्नतांश  और  दिगंश(azimuth) के स्थानीय निर्देशांकों को मापने के लिए किया जाता है। क्षितिज से किसी पिंड की कोणीय  ऊंचाई को उन्नतांश  कहा जाता है। जबकि उत्तरी दिशा से पूर्वी दिशा में उस पिंड की सापेक्ष कोणीय  स्थिति को दिगंश  कहा जाता है।

यंत्र के भीतर मौजूद खाली जगह लोगो के चलने फिरने के लिए छोड़ी गई है ताकि वह चिन्हों को पढ़ सके। इसलिए दोनों पूरक यंत्रों को इस तरह बनाया गया है कि अगर मध्य में स्थित शंकु की छाया किसी एक उपकरण के खाली स्थान पर पड़ती है तो वह दूसरे उपकरण के चिन्हित हिस्से पर जरूरत पड़ेगी।

शंकु की छाया यंत्र की दीवार के शीर्ष पर पडने की स्थिति में सूर्य का उन्नतांश  0 डिग्री होता है जबकि छाया का दिवार तथा  तल के संगम स्थान पर पड़ने पर उन्नतांश 45 अंश का होता है। 45 से 60 अंश का 90 अंश का उन्नतांश  माप यंत्र के तल पर अंकित है।
दिंगश मापने के लिए यंत्र के शीर्ष  के निकट स्थित क्षितिज वृत पर 10-10 आंशो के अंतर से 360 अंक अंकित है प्रत्येक अंत खंड कला उप खंडों में भी विभक्त है

12. दिगंश यंंत्र



इस यत्रं को दिगंश यंंत्र कहते है यह एक वृत्ताकार है जो की खगोलीय पिंडों का दिंगश पता लगाने की एक सरल पद्धति पर आधारित है। किसी खगोलीय पिंड का दिगंश उत्तरी दिशा की ओर से प्रारंभ करते हुए उसकी पूर्वी दिशा की ओर सापेक्ष कोणीय स्थिति को प्रदर्शित करता है।

इस यंत्र में तीन समकेंद्रीय वृत बने हैं जिन पर 360-degree अंकित है सबसे छोटे वृत के केंद्र में एक छिद्रयुक्त शंकु बना है।

रात में किसी खगोलीय पिंड का दिंगश पता लगाने के लिए एक साधारण डोरी को इस शंकु के छिद्र  में बांधते हुए डोरी के दूसरे सिरे को साधारण भार के सहारे बाहरी वृतो में किसी एक पर लगाकर लटकाया जाता है। डोरी को वृत के घेरे पर घुमा कर इसे संबंधित आकाशीय पिंण्ड की सीट में ले आया जाता है।

 इस प्रक्रिया के जरिए एक लंबवत तल परिभाषित होता है जिसमें बहू पिंण्ड और क्षितिज  पर स्थित कोई बिंदु निहित  होता है उत्तर की दिशा से इस लबंवत तल की कोणीय सीमा को वृत के घेरे पर बने हुए उस  चिन्ह के आधार पर पढ़ा जा सकता है जहां की डोरी स्थिर होती है।

इसी प्रकार सूर्य का दिंगश ज्ञात करने के लिए यंत्र में बाहरी  वृत पर एक चतुर सूत्री बांधी जाती है जिसके केंद्र में लगी प्लेट में स्थित छेद की छाया से दिंगष ज्ञात किया जाता है।

दिगंश  एक गोलीय निर्देशांक प्रणाली में एक विशेष कोण के माप का नाम है।

जंतर मंतर के अन्य 6 यंत्र 

इसी तरह 6 और मुख्य यंत्र है जो कि दक्षिणी भीतरा यंत्र शष्ठांश यंत्र , प्रभा यंत्र,  कपाली यंत्र लघु राम यंत्र क्रांति वृत यंत्र आदि है जोकि अपने अपने यंत्र के अनुसार अपना अपना कार्य करके प्रदर्शित करते हैं। यह यंत्र किसी ना किसी रूप में खगोलीय को ही प्रदर्शित करते हैं

दिशा निर्देशक कक्ष

इस जंतर मंतर के परिसर में ही एक दिशा निर्देशांक कक्ष बना हुआ है  विभिन्न आने जाने वाले पर्यटकों को जंतर मंतर के बारे में 18 वीं शताब्दी से वर्तमान समय तक होने वाले विभिन्न परिवर्तनों के बारे में जानकारी व दिशा प्रदान प्रदान की जाती है। इस परिसर के अंदर 3D के माध्यम से बड़े उसमें पर्दे पर फिल्मी रूप में दिखाया जाता है।

इसका निर्माण 20 मई 2013 को राजस्थान सरकार के माननीय  वन, पर्यटक, कला एवं सांस्कृतिक मंत्री बीना काक द्वारा कराया गया

इस जंतर मंतर का संरक्षण

जयपुर के जंतर मंतर का संरक्षण राजस्थान स्मारक  पुरातत्वशेष स्थान    एव  प्राचीन वस्तु अधिनियम  1961 द्वारा संरक्षण किया जाता है।

विश्व धरोहर सूची

राजस्थान के जयपुर के जंतर मंतर को 1 अगस्त 2010 को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया। यह बीच धरोहर सूची में शामिल कराने जयपुर का वाला पहला और भारत का 23वा सांस्कृतिक स्मारक है।

इस जंतर मंतर के अंदर प्रवेश शुल्क

इस परिसर के अंदर प्रवेश शुल्क भारतीयों के लिए ₹50 और विदेशियों के लिए ₹100 है और विद्यार्थियों के लिए ₹20 का टिकट है।

यहां के लिए यातायात साधन

आप यहां पर रेल बस कार या टैक्सी और हवाई जहाज द्वारा आ जा सकते हैं
1. आप यहां पर भारतीय रेल द्वारा आ जा सकते हैं जो कि जयपुर का रेलवे स्टेशन है।
2. यहां का मेट्रो रेलवे स्टेशन और बस स्टॉप बड़ी चौपार है।
3. यहाँ  नियर हवाई जहाज अड्डा जयपुर का  है।

यहां के अन्य पर्यटक स्थल

जयपुर में जंतर मंतर के अलावा अन्य पर्यटन स्थल भी है जहां पर आप घूम सकते हैं
1. जयपुर का हवामहल
2. जयपुर का जल महल
3. जयपुर म्यूजियम
4. सिटी गेट
5. बिरला मंदिर
6. सिटी प्लेस 
7. मुबारक महल 
8. चंद्र महल 
9. सिसोदिया गार्डन
10. रामबाग पैलेस
11. आमेर किला 
12. जयगढ़ का किला
13. शीला देवी मंदिर

दोस्त आशा करता हूं आपको मेरे द्वारा दी गई जानकारी अच्छी लगी होगी। आप इस जानकारी को अपने दोस्तों और अपने चाहने वालों को जरूर से करें

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